“ऐ दे रे...... चल जल्दी कर.... निकाल-निकाल.... ए चिकने... सुना नहीं क्या... दे दे...” की आवाजे़ चलती हुई रेलगाड़ी की आवाज़ पर भारी पड़ रही थी। ट्रेन में बैठे मुसाफिरों को खास कर जिन्हें अपने ‘मरदानापन’ पर नाज होता है, पल भर में उन विशिष्ट लक्षणों का प्रदर्शन करते देखा जा सकता था, जिन्हें आम तौर पर औरतों की पहचान से जोड़कर व्याख्यायित किया जाता है। बहरहाल, हिजड़ों की जमात यात्रियों का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थी। कुछ ने दिया और कुछ ने बहाना बनाकर खुद को बचाया। लेकिन एक बात समान थी कि सभी यात्री हिजड़ों के डर से सहमे हुए थे। रेलगाड़ी रफ्ता-रफ्ता आगे बढ़ रही थी, मानकनगर स्टेशन पीछे छूट रहा था। हिजड़े भी अगले कम्पार्टमेन्ट की तरफ बढ़ चुके थे। उनके आगे बढ़ते ही डर का दबाव कम हुआ। हल्की और तेज मुस्कराहटों के साथ यात्री एक बार फिर एक दूसरे से मुखातिब हुए। कोई पांच मिनट हुए होंगे, एक व्यक्ति घिसटता हुआ हमारी तरफ आया। आते ही उसने दुआवों का पिटारा खोल दिया। “ऊपर वाला भला करे... खुशी बनी रहे... बाल-बच्चे मजे में रहें....” वगैरह बोलता हुआ उसने अपना एक हाथ मुसाफिरों के आगे फैला दिया। हाथ फैलाए उस व्यक्ति ने अपना मुंह ऊपर किया और कुछ इस तरह दुआवों भरी आवाज़ बुलन्द की, जिससे उसकी पुकार कम्पार्टमेन्ट में बैठे हर मुसाफिर के कान तक पहुंच जाए और मुसाफिर की नज़र उसकी हालत पर। वह व्यक्ति लगातार इस कवायद को जारी रखे हुए था, इस उम्मीद में कि ज्यादा से ज्यादा मुसाफिर उसे आर्थिक सहयोग दे दें।
एक बार फिर यात्रियों की दानशीलता की परीक्षा थी। हो भी क्यों नहीं, कुछ देर पहले हिजड़ों की फौज सामने थी, जिन्होंने रज़ामंदी और जबरदस्ती दोनों ही तरीकों से मुसाफिरों से पैसे लिए। इस बार घिसटता हुआ एक अकेला व्यक्ति जिसे एक-दो के सिक्कों से अधिक की चाह भी नहीं थी। हैरान करने वाली बात यह थी कि जिन यात्रियों से हिजड़ों ने दस रूपए से कम नहीं लिए थे, उन्हीं यात्रियों की जेब से एक-दो रूपए निकल पाना मुश्किल हो रहा था। रेलगाड़ी रफ़्तार पकड़ चुकी थी। ट्रेन अमौसी स्टेशन से आगे निकल रही थी। घिसटता हुआ व्यक्ति एक बार यात्रियों की ओर देखता और एक बार अपने आप पर। जैसे बताना की चाह हो कि मुसाफिरों मेरी शारीरिक स्थिति वाकई खराब है। लेकिन एक-दो को छोड़कर सभी मुसाफिर उस घिसटते हुए व्यक्ति की आवाज़ और शारीरिक भाव-भंगिमा बल्कि उसके वजूद और मौजूदगी से खु़द को बेगाना जताने की कोशिश कर रहे थे। मायूसी के आलम में घिसटते हुए उस व्यक्ति ने एक बार फिर पूरी ऊर्जा लगाकर अपनी लाचारी बयान की, “ऐसे लाचार को नहीं दीजिएगा तो किसे दीजिएगा?.... दोनों पैर बेकार हैं.... ऐसे लाचार को देने से दोआ लगता है।” इतने के बाद भी कम्पार्टमेन्ट में यथा स्थिति बनी रहती है। सिर्फ रेल के पहियों की आवाज़ ही शेष थी। उस घिसटते हुए व्यक्ति को इतनी बात समझ में आ चुकी थी कि आगे बढ़ने में ही भलाई है।
उस घिसटते हुए व्यक्ति के आगे बढ़ते ही सामने बैठे दुर्गेश ने जीतेन्द्र से कहा कि “तुमने दिया नहीं, अगर श्राप दे देगा तो!” जीतेन्द्र के जवाब से हमारे जैसों का ध्यान भी उसकी ओर केन्द्रित हो गया। “दे देगा तो दे दे..., इससे बड़ा श्राप क्या होगा कि 22 साल की उम्र में हमारे गांव-कस्बे के नौजवानों को घर-बार छोड़कर त्रिवेन्द्रम जाना पड़ रहा है।” जीतेन्द्र ने हमें बताया कि “रेल में यात्रा बस से सस्ता और सुविधाजनक तो है, लेकिन बार-बार हिजड़ों का सामना यात्रा को कठिन बनाता है। गोरखपुर से लखनऊ के बीच अभी तक चार-पांच बार ये आ चुके हैं। आय चाहे जितनी हो, बचत हो या न हो, हिजड़े हम जैसों से ही वसूली करते हैं। हम इन्हें पैसे तो दे ही देते हैं, लेकिन ये हमसे जबरी (बलपूर्वक) वसूली करते हैं। पूरे सफर में 200 से 500 रूपए इन जैसों को देना पड़ता है। ऊपर से इनकी बद्तमीज़ियां अलग झेलनी पड़ती हैं। ऐसा भी होता है कि किसी कारणवश किसी यात्री ने पैसे नहीं दिए तो ये उस यात्री के साथ मार-पीट करने को तैयार हो जाते हैं। पिछली बार की ही घटना है, हमारे एक साथी के पास पैसे नहीं थे, इसलिए उस पर एक हिजड़े ने हाथ उठा लिया था।” कुछ मुसाफिर, जिनका साबका कभी-कभी होता है, ने बताया कि यह तो जबरन उगाही है। भुक्तभागी यात्रियों ने ही बताया कि ऐसा कहने पर उलटा जवाब मिलता है “जिस थाने में जाना हो चले जाओ..., वो तो खुद हमारी खाते हैं...”।
अब तक मुझे बैठने के लिए थोड़ी जगह मिल चुकी थी। लेकिन सामने बैठे 29 साल के जीतेन्द्र का चेहरा बार-बार उदास सा हो रहा था। जीतेन्द्र अकेले नहीं थे जो त्रिवेन्द्रम जा रहे थे। उनके गांव के जवान लड़कों की एक पूरी टोली थी, जो आजीविका के लिए त्रिवेन्द्रम जा रही थी। इस यात्रा में दुःख, विषाद, वियोग और हर्ष हर तरह के भाव थे। हर्ष काम करके आजीविका अर्जित करने का, दुःख और विषाद अपनों से बिछड़ने का।
लखनऊ
10.01.2014
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