Tuesday, January 7, 2014

“आपने उन्हें सलाम किया!”


की तरह आज भी कुहरा बहुत घना था। 10 मीटर की दूरी तक देख पाना मुश्किल हो रहा था। हैड लाइट और इंडिकेटर की रोशनी भी कम पड़ रही थी। आज का पहला काम कुछ अहम जानकारी इकट्ठी करना था। मिश्रा जी के केबिन से निकला तो मेरी नज़र बाहर लाॅन में काम कर रहे कुछ मज़दूरों पर पड़ी, जिन्हें मौसम की बानगी से कुछ लेना-देना नहीं था। वो अपनी धुन में अपने काम में व्यस्त थे। मुझे कौतुहल से देखते और फिर अपने काम में लग जाते। मैं अपनी इच्छित जानकारी की खोज में कभी निर्माणाधीन भवन के अन्दर जाता तो कभी बाहर आता। सीढि़यां चढ़ता और उतर जाता। शायद मेरी नज़रों को किसी मददगार की तलाश थी। प्रथम तल पर पहुंचा तो वहां सलवार-समीज में दो महिलाओं को हाॅल के अन्दर पोछा लगाते हुए देखा। मैं उनसे मुखातिब होता, इससे पहले ही एक महिला काॅरीडोर से होते हुए हमारी तरफ आयीं। वह महिला मुझसे मेरे बारे में बगैर किसी जांच-पड़ताल के मेरी ‘जानकारी की खोज’ में मेरी मददगार बन गयी।

हाॅल में दाखिल हुए तो उस महिला ने अंधेरे में अपनी ओर आते हुए एक व्यक्ति को “सलाम वालेकुम” बोला। ये तो मैं समझ गया था कि ये दोनों एक दूसरे के परिचित हैं। लेकिन पहचान के सवालों में उलझा मेरा मन खु़द को रोक नहीं सका। सवाल कुछ इस तरह से किया कि दोनों की पहचान ज़ाहिर हो जाए। मेरी जिज्ञासा जायज़ थी या नहीं, लेकिन मेरे हिसाब से इस सवाल की गुंजाइश ज़रूर बन गयी थी। क्योंकि मदद करने वाली महिला जो अभी तक “सब साईं बाबा की कृपा है....” का उच्चारण कर रही थी, उसके मुख से “सलाम वालेकुम” की धारा प्रवाह अभिव्यक्ति ने मेरे मन को अचानक से यू टर्न लेने पर मजबूर कर दिया। अब मकसद उन जानकारियों को इकट्ठा करना नहीं था, जिनके लिए मैं कुहरा और सर्दी की परवा किए बगैर अल सुबह घर से निकला था, बल्कि सुबह-सुबह दो ऐसे व्यक्तियों की पहचान से वाकि़फ होना था।

निस्संदेह इंसानियत से बड़ी कोई पहचान नहीं हो सकती है। लेकिन भारत जैसे विविधता बाहुल्य देश और सामाजिक ताना-बाना में कई बार हम धार्मिक/सामुदायिक पहचान के विमर्श में खु़द-ब-खु़द खिंचे चले जाते हैं। मेरी जुस्तजू इतनी थी कि जिस जगह मैं खड़ा था वहां “सलाम वालेकुम” के लिए इतनी गुंजाइश कैसे बन पायी। मैंने मदद करने वाली महिला से विस्मयवाचक अंदाज़ में पूछा कि “आपने उन्हें सलाम किया!” महिला जवाब देती, इससे पहले सामने से आ रहे व्यक्ति की आवाज़ हम तक चली आयी। “क्या मुसलमान होना गुनाह है?” चश्मा लगाए वह व्यक्ति, जो नीली जैकेट में था, देश और दुनिया के बुद्धिजीवियों और चिंतकों के ढे़रों तार्किक और अतार्किक सवालों का जबाब बन गया। ऐसा लग रहा था, जैसे वह व्यक्ति यह नहीं कह रहा हो कि “क्या मुसलमान होना गुनाह है?”, बल्कि यह कह रहा हो कि “हां! जिस तरह से दलित, पिछड़ा, आदिवासी, महिला और ग़रीब होना गुनाह है, उसी तरह मु.......................।”

अपने साथ एक फोटो की गुज़ारिश सुमन और अनवर ने बिना किसी लाग-लपेट के फौरन पूरी कर दी। दोबारा जाने कब मुलाकात हो इनसे, फिर भी ऐसा लगता है कि सुमन और अनवर जैसे बहन-भाइयों की कमी नहीं है हमारे समाज में।

दिनांक 07.01.2014
स्थान- लखनऊ

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