Tuesday, January 7, 2014

आर्थिक सुधारों के दौर में मेहनतकश कौमों का सुधार क्यों नहीं ?

बाराबंकी से वापस तो हम कल ही आ गए थे, लेकिन इरशाद मियां ने पीछा नहीं छोड़ा. दिन भर काम करते हैं तो कोई 8-10 जालियां तैयार कर पाते हैं, जिसका इस्तेमाल छप्पर और दीवार नुमा दीवार बनाने में किया जाता है. यानि ग़रीब को ग़रीब की मेहनत का सहारा. इस काम में इरशाद मियां को बांस चीर कर बत्ता या फट्टा बनाना पड़ता है. इस बत्ता के बनाने में हाथ कटने की संभावना प्रबल होती है. आम तौर पर इस काम को करने वाले समुदाय को बांसफोर कहा जाता है, इस समुदाय के लोग बांस के बत्ते या फट्ठे और मूँज के इस्तेमाल से तरह-तरह की डिजाइनों वाले पात्रों और रोज़मर्रा इस्तेमाल की चीजें बनाने की अदभुत कला जानते हैं. पिछले दिनों मुहम्मदाबाद-मऊ संपर्क मार्ग पर हर एक दो किलोमीटर के अन्तराल पर बांसफोर समुदाय की झोपड़ियाँ देखने को मिलीं. कुछ धार्मिक अवसरों पर सूप जैसी वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है. वैसे इनके बनाये हुए उत्पाद ट्रकों में एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हुए भी देखा जा सकता है. ऐसे में यह सवाल जायज़ है कि इतनी मेहनत और बाज़ार से लिंक्ड होती हुई आर्थिक सुधारों के दौर वाली मौजूदा अर्थव्यवस्था में इन जैसे मेहनतकश कौमों का सुधार क्यों नहीं हो पा रहा है?

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