जिनसे मिलने की आस में बीएचयू स्थित न्यू ट्रॉमा सेन्टर जाना हुआ, उनसे मुलाक़ात नहीं हो सकी। क्योंकि वो एक ज़रूरी मीटिंग में थे और मीटिंग के दौरान उनका सभागार से बाहर आना मुमकिन नहीं था। इंतेज़ार की घड़ियां गिनते वक्त मेरी मुलाक़ात मुश्ताक़ साहब से होती है। फ्लोर पर हम दोनों के अलावा एक अन्य व्यक्ति भी होते हैं, जो मुश्ताक के काम में सहायता कर रहे होते हैं। मुश्ताक़ साहब की व्यस्तता देखकर मीटिंग की गंभीरता और महत्व का अंदाज़ा लगाना मेरे लिए मुश्किल नहीं होता है। ऊपर से मुश्ताक साहब की बातें कि “साहब को मीटिंग के दौरान बाहर आना बिल्कुल पसंद नहीं है..... वो मीटिंग के दौरान किसी से मिलते नहीं.... वगैरह-वगैरह...”। लेकिन इस पल में कम से कम इतना हुआ कि मुझसे मुश्ताक़ साहब और मुश्ताक़ साहब से मेरा मिलना तय हो गया। मित्रवत सहयोग की भावना देख मैंने वापस जाने का इरादा छोड़ दिया और मुश्ताक साहब से कुछ पल बात करने की इच्छा ज़ाहिर की।
मुश्ताक़ साहब बनारस के साकेत नगर कॉलोनी में रहते हैं। इस कॉलोनी में लगभग 50-60 परिवार ऐसे हैं जिनकी सामुदायिक पहचान हलालखोर बिरादरी की है। इनके अब्बा का नाम इसहाक़ है और वो 55 वर्ष के हैं। वो बीएचयू में सफाईकर्मी के पद पर तैनात हैं। कुल छः भाई-बहनों में मुश्ताक़ साहब एक हैं। उनकी शैक्षिक अर्ह्ता 10वीं पास की है। लेकिन अच्छी बात यह है कि बेकारी के इस दौर में उनके पास एक अदद सरकारी नौकरी है। वैसे तो मुश्ताक़ साहब की नियुक्ति सफाईकर्मी के पद पर है। लेकिन कहते हैं कि “वो हर काम करते हैं।” एक सुखद एहसास यह है कि उन्हें बीएचयू के नए ट्रामा सेन्टर स्थित कुलसचिव और उप कुलसचिव की सेवा में रहना होता है। सेवा में कभी कोई भूल हो जाए तो गांव-मुहल्ले या खेत-खलिहानों में काम करने वालों की तरह उन्हें झिड़कियां नहीं सुननी होती हैं। एक ग़लती तो उनसे अभी हो गयी थी। उन्होंने मीटिंग रूम में चाय की जगह कॉफी परोस दी थी। मीटिंग में भाग ले रहे डॉक्टर और प्रशासनिक पदाधिकारियों की प्रतिक्रिया सिर्फ चाय और कॉफी के स्वाद में अंतर बताने भर की होती है। चेहरे पर संतुष्टि का भाव लिए मुश्ताक़ भाई को अगले काम की जल्दी होती है। उनके जाने की जल्दबाज़ी के बावजूद उनसे कुछ पल बात करने का अवसर न खोने के इरादे से एक बार फिर बैठने का इसरार कुबूल फरमाते हैं।
हम दोनों मीटिंग हॉल के सामने बाहर रखी कुर्सी पर बैठ जाते हैं। नाम, गांव पता के बाद वो कहते हैं, “अभी चलें... हमरा टाइम हो गया है...”। “कहां चलें?”, का जवाब देते हुए बताया कि “हम चलेंगे सर का लंच लेने।” ज़ाहिर है, चाय-काफी के बाद सर को लंच कराने की जिम्मेदारी मुश्ताक साहब की होती है।
वो चलते, इससे पहले ही एक लड़की, उम्र 20-25 बरस की रही होगी, लिफ्ट से बाहर निकलती है। वो मीटिंग हॉल की ओर बढ़ती है। लेकिन मुश्ताक़ साहब उसे बैठे-बैठे ही रोकते हैं। “किससे मिलना है?, क्या काम है?...” वगैरह पूछते हैं। “फार्मा से आ रही हूं।... सर ने बुलाया है।...” मुश्ताक़ साहब एक बार फिर मीटिंग रूम में जाते हैं और वापस आकर उस लड़की को अन्ंदर जाने का इशारा करते हैं। मुश्ताक़ साहब को मैं फिर से कुर्सी पर बैठने का आग्रह करता हूं और इस बार भी वो आग्रह स्वीकार भी कर लेते हैं।
इस बार बहुतों की तरह उनमें जल्दी जाने की बेचैनी बार-बार ज़ाहिर नहीं करते। 10वीं पास मुश्ताक़ साहब की कद़-काठी किसी ऐसे नौजवान की है, जिसे पुलिस और आर्मी की सेवा हेतु योग्य न समझा जा सके। उनका चेहरा और हेयर स्टाइल ऐसा कि बड़े और छोटे दोनों ही पर्दों के कलाकार होने की दलील हो। लेकिन मुश्ताक़ साहब की क़िस्मत या मसलेहत कि उन्हें उनके अब्बा की तरह सफाईकर्मी के पद पर ही नियुक्ति मिली। मुश्ताक साहब के समझ से यह बात परे है कि जब उनके घर-परिवार के साथ साकेत नगर कॉलोनी में किसी तरह का भेदभाव नहीं है, तो ऐसा क्यों है कि पुश्त दर पुश्त उनकी बिरादरी के लोग ही सफाई के काम में क्यों लगे हुए है? या उन्हें ही इस काम के लिए उपयुक्त क्यों समझा जाता है?, शैक्षिक और शारीरिक रूप से पुलिस और सेना की सेवाओं के लिए अर्ह् और योग्य भी दिखने वाले मुश्ताक़ साहब को नहीं पता कि उन जैसे नौजवानों को सफाईकर्मी के लिए ही योग्य समझा जाता है? और “काशी का अस्सी” लिखने वाले काशी नाथ सिंह जैसे लेखकों और साहित्यकारों को भी मुश्ताक़ जैसे नौजवानों का विमर्श नहीं दिखता है।
चूंकि शिक्षा मानव विकास के तीन प्रमुख सूचकांकों में एक है। 10वीं पास मुश्ताक भाई से यह जानना एक नए अनुभव का सबब बना कि उनकी बिरादरी में सबसे अधिक शैक्षिक अर्ह्ता रखने वाला कौन है। मुश्ताक़ भाई को शिक्षा का यह सवाल जातिवादी सवाल लगा। कहते हैं कि “ये जो जातिवादी सवाल है, इसके बारे में बड़े अब्बू से पूछिए, उनको बहुत जानकारी है।”
मुश्ताक साहब आप नहीं जानते कि जो जानकारी आपके बड़े पापा को है, दर असल वो जातिवादी नहीं है और न ही जातिवाद को बढ़ाने के लिए है। यह तो किसी व्यक्ति, समाज और समुदाय की अपनी खु़द की अस्मिता और आस्तित्व को बचाए और बनाए की जानकारी है। अफ़सोस का मुकाम यह है कि आप जैसे नौजवान जो अपनी सामुदायिक पहचान के कारण सदियों से वंचित रहे, आज उसी पहचान को जातिवादी समझ रहे हैं। जातिवाद की यह समझ कहीं न कहीं, किसी न किसी समय में आपकी समझदारी का हिस्सा बनी है।
शायद मुश्ताक़ साहब अब बोर हो रहे थे। उनके बैठने का अंदाज और कुर्सी पर हील-डोल करता उनका शरीर जल्दबाज़ी की चुग़ली कर रहा होता है। लेकिन मिस्लम समाज के आन्तरिक लोकतंत्र की बातें उन्हें कुछ और पल आराम से बैठ जाने के लिए आमादा करती हैं। सर और सर का लंच बातचीत में बाधा नहीं बनती। अपना ख़याल ज़ाहिर करते हुए कहते हैं कि “इस तरह से न तो पहले किसी ने उनसे बात की थी और न ही संविधान, आज़ादी, न्याय और समानता के बार में कुछ बताया था।” यहां एक से एक लोग आते-जाते रहते हैं। इनमें ज्यादातर डॉक्टर और ट्रॉमा सेन्टर के स्टॉफ होते हैं। लेकिन कभी किसी ने शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका को लेकर कोई बात साझा करना ज़रूरी नहीं समझा।” कुछ पलों की बातचीत के दौरान मुश्ताक़ साहब ने बार-बार अपने बड़े अब्बू मुर्तजा अली का ज़िक्र किया कि मैं उनसे बात करूं। वो मुझे सही-सही बताएंगे। वो लड़की जो कुछ देर पहले मीटिंग रूम में गयी थी, वापस आ चुकी होती है। मोबाइल के की पैड पर उंगलियां फिराती सीढ़ी बढ़ती है। मुश्ताक़ साहब और मैं भी लिफ्ट से नीचे पहुंचते हैं। बाहर निकलकर मुश्ताक़ साहब से मैं और मुझसे मुश्ताक़ साहब विदा लेते हैं। ये कहना नहीं भूलते कि मेरे बड़े अब्बू से बात कीजिएगा, वो सही-सही बताएंगे।
September 2015, BHU, Varanasi
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