Tuesday, January 14, 2014

एक घिसटता हुआ व्यक्ति...


“ऐ दे रे...... चल जल्दी कर.... निकाल-निकाल.... ए चिकने... सुना नहीं क्या... दे दे...” की आवाजे़ चलती हुई रेलगाड़ी की आवाज़ पर भारी पड़ रही थी। ट्रेन में बैठे मुसाफिरों को खास कर जिन्हें अपने ‘मरदानापन’ पर नाज होता है, पल भर में उन विशिष्ट लक्षणों का प्रदर्शन करते देखा जा सकता था, जिन्हें आम तौर पर औरतों की पहचान से जोड़कर व्याख्यायित किया जाता है। बहरहाल, हिजड़ों की जमात यात्रियों का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थी। कुछ ने दिया और कुछ ने बहाना बनाकर खुद को बचाया। लेकिन एक बात समान थी कि सभी यात्री हिजड़ों के डर से सहमे हुए थे। रेलगाड़ी रफ्ता-रफ्ता आगे बढ़ रही थी, मानकनगर स्टेशन पीछे छूट रहा था। हिजड़े भी अगले कम्पार्टमेन्ट की तरफ बढ़ चुके थे। उनके आगे बढ़ते ही डर का दबाव कम हुआ। हल्की और तेज मुस्कराहटों के साथ यात्री एक बार फिर एक दूसरे से मुखातिब हुए। कोई पांच मिनट हुए होंगे, एक व्यक्ति घिसटता हुआ हमारी तरफ आया। आते ही उसने दुआवों का पिटारा खोल दिया। “ऊपर वाला भला करे... खुशी बनी रहे... बाल-बच्चे मजे में रहें....” वगैरह बोलता हुआ उसने अपना एक हाथ मुसाफिरों के आगे फैला दिया। हाथ फैलाए उस व्यक्ति ने अपना मुंह ऊपर किया और कुछ इस तरह दुआवों भरी आवाज़ बुलन्द की, जिससे उसकी पुकार कम्पार्टमेन्ट में बैठे हर मुसाफिर के कान तक पहुंच जाए और मुसाफिर की नज़र उसकी हालत पर। वह व्यक्ति लगातार इस कवायद को जारी रखे हुए था, इस उम्मीद में कि ज्यादा से ज्यादा मुसाफिर उसे आर्थिक सहयोग दे दें।

क बार फिर यात्रियों की दानशीलता की परीक्षा थी। हो भी क्यों नहीं, कुछ देर पहले हिजड़ों की फौज सामने थी, जिन्होंने रज़ामंदी और जबरदस्ती दोनों ही तरीकों से मुसाफिरों से पैसे लिए। इस बार घिसटता हुआ एक अकेला व्यक्ति जिसे एक-दो के सिक्कों से अधिक की चाह भी नहीं थी। हैरान करने वाली बात यह थी कि जिन यात्रियों से हिजड़ों ने दस रूपए से कम नहीं लिए थे, उन्हीं यात्रियों की जेब से एक-दो रूपए निकल पाना मुश्किल हो रहा था। रेलगाड़ी रफ़्तार पकड़ चुकी थी। ट्रेन अमौसी स्टेशन से आगे निकल रही थी। घिसटता हुआ व्यक्ति एक बार यात्रियों की ओर देखता और एक बार अपने आप पर। जैसे बताना की चाह हो कि मुसाफिरों मेरी शारीरिक स्थिति वाकई खराब है। लेकिन एक-दो को छोड़कर सभी मुसाफिर उस घिसटते हुए व्यक्ति की आवाज़ और शारीरिक भाव-भंगिमा बल्कि उसके वजूद और मौजूदगी से खु़द को बेगाना जताने की कोशिश कर रहे थे। मायूसी के आलम में घिसटते हुए उस व्यक्ति ने एक बार फिर पूरी ऊर्जा लगाकर अपनी लाचारी बयान की, “ऐसे लाचार को नहीं दीजिएगा तो किसे दीजिएगा?.... दोनों पैर बेकार हैं.... ऐसे लाचार को देने से दोआ लगता है।” इतने के बाद भी कम्पार्टमेन्ट में यथा स्थिति बनी रहती है। सिर्फ रेल के पहियों की आवाज़ ही शेष थी। उस घिसटते हुए व्यक्ति को इतनी बात समझ में आ चुकी थी कि आगे बढ़ने में ही भलाई है।

स घिसटते हुए व्यक्ति के आगे बढ़ते ही सामने बैठे दुर्गेश ने जीतेन्द्र से कहा कि “तुमने दिया नहीं, अगर श्राप दे देगा तो!” जीतेन्द्र के जवाब से हमारे जैसों का ध्यान भी उसकी ओर केन्द्रित हो गया। “दे देगा तो दे दे..., इससे बड़ा श्राप क्या होगा कि 22 साल की उम्र में हमारे गांव-कस्बे के नौजवानों को घर-बार छोड़कर त्रिवेन्द्रम जाना पड़ रहा है।” जीतेन्द्र ने हमें बताया कि “रेल में यात्रा बस से सस्ता और सुविधाजनक तो है, लेकिन बार-बार हिजड़ों का सामना यात्रा को कठिन बनाता है। गोरखपुर से लखनऊ के बीच अभी तक चार-पांच बार ये आ चुके हैं। आय चाहे जितनी हो, बचत हो या न हो, हिजड़े हम जैसों से ही वसूली करते हैं। हम इन्हें पैसे तो दे ही देते हैं, लेकिन ये हमसे जबरी (बलपूर्वक) वसूली करते हैं। पूरे सफर में 200 से 500 रूपए इन जैसों को देना पड़ता है। ऊपर से इनकी बद्तमीज़ियां अलग झेलनी पड़ती हैं। ऐसा भी होता है कि किसी कारणवश किसी यात्री ने पैसे नहीं दिए तो ये उस यात्री के साथ मार-पीट करने को तैयार हो जाते हैं। पिछली बार की ही घटना है, हमारे एक साथी के पास पैसे नहीं थे, इसलिए उस पर एक हिजड़े ने हाथ उठा लिया था।” कुछ मुसाफिर, जिनका साबका कभी-कभी होता है, ने बताया कि यह तो जबरन उगाही है। भुक्तभागी यात्रियों ने ही बताया कि ऐसा कहने पर उलटा जवाब मिलता है “जिस थाने में जाना हो चले जाओ..., वो तो खुद हमारी खाते हैं...”।

ब तक मुझे बैठने के लिए थोड़ी जगह मिल चुकी थी। लेकिन सामने बैठे 29 साल के जीतेन्द्र का चेहरा बार-बार उदास सा हो रहा था। जीतेन्द्र अकेले नहीं थे जो त्रिवेन्द्रम जा रहे थे। उनके गांव के जवान लड़कों की एक पूरी टोली थी, जो आजीविका के लिए त्रिवेन्द्रम जा रही थी। इस यात्रा में दुःख, विषाद, वियोग और हर्ष हर तरह के भाव थे। हर्ष काम करके आजीविका अर्जित करने का, दुःख और विषाद अपनों से बिछड़ने का।

लखनऊ
10.01.2014

Tuesday, January 7, 2014

“आपने उन्हें सलाम किया!”


की तरह आज भी कुहरा बहुत घना था। 10 मीटर की दूरी तक देख पाना मुश्किल हो रहा था। हैड लाइट और इंडिकेटर की रोशनी भी कम पड़ रही थी। आज का पहला काम कुछ अहम जानकारी इकट्ठी करना था। मिश्रा जी के केबिन से निकला तो मेरी नज़र बाहर लाॅन में काम कर रहे कुछ मज़दूरों पर पड़ी, जिन्हें मौसम की बानगी से कुछ लेना-देना नहीं था। वो अपनी धुन में अपने काम में व्यस्त थे। मुझे कौतुहल से देखते और फिर अपने काम में लग जाते। मैं अपनी इच्छित जानकारी की खोज में कभी निर्माणाधीन भवन के अन्दर जाता तो कभी बाहर आता। सीढि़यां चढ़ता और उतर जाता। शायद मेरी नज़रों को किसी मददगार की तलाश थी। प्रथम तल पर पहुंचा तो वहां सलवार-समीज में दो महिलाओं को हाॅल के अन्दर पोछा लगाते हुए देखा। मैं उनसे मुखातिब होता, इससे पहले ही एक महिला काॅरीडोर से होते हुए हमारी तरफ आयीं। वह महिला मुझसे मेरे बारे में बगैर किसी जांच-पड़ताल के मेरी ‘जानकारी की खोज’ में मेरी मददगार बन गयी।

हाॅल में दाखिल हुए तो उस महिला ने अंधेरे में अपनी ओर आते हुए एक व्यक्ति को “सलाम वालेकुम” बोला। ये तो मैं समझ गया था कि ये दोनों एक दूसरे के परिचित हैं। लेकिन पहचान के सवालों में उलझा मेरा मन खु़द को रोक नहीं सका। सवाल कुछ इस तरह से किया कि दोनों की पहचान ज़ाहिर हो जाए। मेरी जिज्ञासा जायज़ थी या नहीं, लेकिन मेरे हिसाब से इस सवाल की गुंजाइश ज़रूर बन गयी थी। क्योंकि मदद करने वाली महिला जो अभी तक “सब साईं बाबा की कृपा है....” का उच्चारण कर रही थी, उसके मुख से “सलाम वालेकुम” की धारा प्रवाह अभिव्यक्ति ने मेरे मन को अचानक से यू टर्न लेने पर मजबूर कर दिया। अब मकसद उन जानकारियों को इकट्ठा करना नहीं था, जिनके लिए मैं कुहरा और सर्दी की परवा किए बगैर अल सुबह घर से निकला था, बल्कि सुबह-सुबह दो ऐसे व्यक्तियों की पहचान से वाकि़फ होना था।

निस्संदेह इंसानियत से बड़ी कोई पहचान नहीं हो सकती है। लेकिन भारत जैसे विविधता बाहुल्य देश और सामाजिक ताना-बाना में कई बार हम धार्मिक/सामुदायिक पहचान के विमर्श में खु़द-ब-खु़द खिंचे चले जाते हैं। मेरी जुस्तजू इतनी थी कि जिस जगह मैं खड़ा था वहां “सलाम वालेकुम” के लिए इतनी गुंजाइश कैसे बन पायी। मैंने मदद करने वाली महिला से विस्मयवाचक अंदाज़ में पूछा कि “आपने उन्हें सलाम किया!” महिला जवाब देती, इससे पहले सामने से आ रहे व्यक्ति की आवाज़ हम तक चली आयी। “क्या मुसलमान होना गुनाह है?” चश्मा लगाए वह व्यक्ति, जो नीली जैकेट में था, देश और दुनिया के बुद्धिजीवियों और चिंतकों के ढे़रों तार्किक और अतार्किक सवालों का जबाब बन गया। ऐसा लग रहा था, जैसे वह व्यक्ति यह नहीं कह रहा हो कि “क्या मुसलमान होना गुनाह है?”, बल्कि यह कह रहा हो कि “हां! जिस तरह से दलित, पिछड़ा, आदिवासी, महिला और ग़रीब होना गुनाह है, उसी तरह मु.......................।”

अपने साथ एक फोटो की गुज़ारिश सुमन और अनवर ने बिना किसी लाग-लपेट के फौरन पूरी कर दी। दोबारा जाने कब मुलाकात हो इनसे, फिर भी ऐसा लगता है कि सुमन और अनवर जैसे बहन-भाइयों की कमी नहीं है हमारे समाज में।

दिनांक 07.01.2014
स्थान- लखनऊ

आर्थिक सुधारों के दौर में मेहनतकश कौमों का सुधार क्यों नहीं ?

बाराबंकी से वापस तो हम कल ही आ गए थे, लेकिन इरशाद मियां ने पीछा नहीं छोड़ा. दिन भर काम करते हैं तो कोई 8-10 जालियां तैयार कर पाते हैं, जिसका इस्तेमाल छप्पर और दीवार नुमा दीवार बनाने में किया जाता है. यानि ग़रीब को ग़रीब की मेहनत का सहारा. इस काम में इरशाद मियां को बांस चीर कर बत्ता या फट्टा बनाना पड़ता है. इस बत्ता के बनाने में हाथ कटने की संभावना प्रबल होती है. आम तौर पर इस काम को करने वाले समुदाय को बांसफोर कहा जाता है, इस समुदाय के लोग बांस के बत्ते या फट्ठे और मूँज के इस्तेमाल से तरह-तरह की डिजाइनों वाले पात्रों और रोज़मर्रा इस्तेमाल की चीजें बनाने की अदभुत कला जानते हैं. पिछले दिनों मुहम्मदाबाद-मऊ संपर्क मार्ग पर हर एक दो किलोमीटर के अन्तराल पर बांसफोर समुदाय की झोपड़ियाँ देखने को मिलीं. कुछ धार्मिक अवसरों पर सूप जैसी वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है. वैसे इनके बनाये हुए उत्पाद ट्रकों में एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हुए भी देखा जा सकता है. ऐसे में यह सवाल जायज़ है कि इतनी मेहनत और बाज़ार से लिंक्ड होती हुई आर्थिक सुधारों के दौर वाली मौजूदा अर्थव्यवस्था में इन जैसे मेहनतकश कौमों का सुधार क्यों नहीं हो पा रहा है?