Saturday, February 18, 2017

तहज़ीब के शहर में "चाय पिलाएंगे क्या!"

4 साल पहले
कल अब्बा ने टांका (स्टीच) काट दिया। मैं अस्पताल जाने से बच गया। वही अस्पताल जो सरकारी है, बड़ी है और जहां की व्यवस्था एक हद तक संतोषजनक होने के साथ-साथ दिलचस्प भी हैं। संतोषजनक इसलिए क्योंकि यहां ओपीडी काउन्टर पर बनारस के बीएचयू या दिल्ली के एम्स व सफदरजंग जैसी भीड़ नहीं होती। इसका मतलब यह भी नहीं कि यहां मरीज़ आते-जाते ही नहीं हैं। मतलब यह भी नहीं है कि तहज़ीब के इस शहर में स्वास्थ्य सुविधाओं का मोकम्मल तौर पर निजीकरण हो चुका है। बहुत से लोग राजधानी स्थित आरएमएल अस्पताल की संतोषजनक व्यवस्था का श्रेय प्रदेश के वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री को देते हैं। बहरहाल, 11 फरवरी को 10 बजे तक आॅपरेशन पूरा हो चुका था। लेकिन पहली बार मुझे पता चला कि अस्पताल के बाहर और अन्दर की चमकती दीवारों और फ़्लोर के बीच कुछ ऐसा था जो स्वास्थ्य व्यवस्था की चमक को कम करने वाला था। कुछ ऐसा जिससे निजीकरण की आहट सुनी और महसूस की जा सकती थी। आॅपरेशन के बाद ही पता चला कि आॅपरेशन के बाद मरीज़ को आॅपरेशन थिएटर के बाहर बेड पर उस वक्त तक पड़ा रहना होता है, जब तक कि मरीज़ के तीमारदार अपने मरीज़ को वार्ड तक पहुंचाने वाले स्वास्थ्य कर्मी व्यक्ति को खुश न कर दे। तीमारदार को खुश कराने की इस प्रक्रिया में अगर एसोसिएट प्रोफेसर, एमएस सर्जन यानि सर्जरी में महारत रखने वाला डाॅक्टर आॅपरेशन थिएटर के सामने हाल में पड़े मरीज़ के कान में अगर वार्ड ब्वाय को खुश करने की बात करे तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं। फिर भी मुझे हैरानी हुई क्योंकि यह पहला अवसर था अन्दर की व्यवस्था की पड़ताल का। किसी स्ट्रिंग आॅपरेशन जैसा अनुभव था। लोकल एनेस्थीसिया की हालत में विवशता हमारा हौसला बढ़ा रही थी कि वार्ड ब्वाय को जितनी जल्दी हो सके खुश करवाया जाए। लेकिन तीमारदारों के अन्दर आने की सख़्त मनाही और सर्जरी का केस। किसी तरह से पैग़ाम तीमारदार तक पहुंची और तीन सौ रूपए की खुशी की अभिव्यक्ति। तब जाकर कहीं पहुचाए गए हम वार्ड नं॰ 109 में।

ध्यान 1991 के नए आर्थिक सुधारों की ओर जाता है। उन सुधारों की ओर जिसके ज़रिए तमाम क्षे़त्रों में संविदा कर्मचारियों की संख्या बढ़ती गयी और स्थाई पदों में निरन्तर कमी आयी। यद्यपि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर रही है। जेएसवाई, स्वास्थ्य बीमा और एनआरएचएम जैसी बड़ी और महत्वाकांक्षी योजनाएं भी चलायी जा रही हैं। लेकिन जज़मानी की तरह एक नयी जज़मानी व्यवस्था को आगे बढ़ते हुए देखा और महसूस किया जा सकता है। अगर ऐसा न होता तो वार्ड के अन्दर आने-जाने वाला हर वो कर्मचारी (जो संविदा पर हैं) मरीज़ों और तीमारदारों को उम्मीद की निगाहों से देखते हैं। 12 फरवरी को भी मेरे जिस्म में इतनी सकत नहीं थी कि मैं खु़द उठ-बैठ लूं। अब्बा पिछले दिन की तरह आज भी सोफा पर बैठे अख़बार पढ़ रहे होते हैं। झाड़ू लगाते-लगाते स्वीपर मुस्कान बिखेरता है और मेरे अब्बा को मुख़ातिब करके कहता है कि “बाबूजी एक बात कहें!” अख़बार पढ़ रहे अब्बा का ध्यान अख़बार पर ही बना रहता है। शायद कोई दिलचस्प ख़बर हो। स्वीपर मेरी तरफ देखता है। मैं बस इतना ही कह सका “कहिए”... स्वीपर बाबू अपने चेहरे पर ग़ज़ब की मुस्कान सजाते हुए अपने दिल की बात कह डाली जैसे कोई पे्रमी पहली बार अपने ख़्याल का इज़हार करता है। मेरा इशारा समझते हुए उसने अब्बा की ओर इशारे से कहा... “बाबूजी चाय पिलाएंगे क्या!” तहज़ीब के इस शहर में मेरे अब्बा जो खु़द अजनबी थे, से चाय पीने का आग्रह बहुत कुछ कह गया। मैं बोल नहीं पा रहा था लेकिन मन में कुछ संवेग सा ज़रूर चल रहा था। अब जबकि लैपटाॅप की कीबोर्ड पर उंगलियां फिर से थिरकने लगी हैं तो मन में चल रहे संवेगों को आप तक पहुंचा पा रहा हूं। अब्बा को यह नहीं समझ में आया कि जब उनकी उस व्यक्ति से पहले की कोई मुलाकात नहीं है और न ही आज की मुलाक़ात इतनी पुरानी और कम से कम ऐसी हुई है कि चाय का मामला बने, तो फिर उसने चाय का आग्रह क्यों किया? दूसरी ओर मैं इस सोच में पड़ गया कि दोपहर के एक बज कर दो मिनट हुए हैं और लन्च के इस वक्त में यह व्यक्ति भोजन की बजाए चाय की तलब ज़ाहिर कर रहा है। झाड़ू के बाद पोछा लगाने एक महिला आई और पोछा लगाकर वापस चली गयी। लेकिन जो महिला कर्मचारी पिछली सुबह बेडशिट बदलने आयी थी, उसने भी आज चाय पीने की इच्छा ज़ाहिर की थी। अब्बा ने यह कहते हुए कि “मेहमान तो हम लोग हैं फिर चाय तो आपको पिलाना चाहिए” बीस रूपए उस महिला को चाय पीने को दे दिया। कुछ बोल नहीं पाने की मजबूरी के चलते मैं सिर्फ उस महिला के चेहरे पर कायम उत्साह की रेखाओं को पढ़ने की कोशिश करता रहा। बीस रूपए सहेजकर कमरा नं॰ 109 से बाहर निकलने से पहले वो महिला जो पहले दिन स्वीपर, दूसरे दिन केयर टेकर और तीसरे दिन नर्स के रूप में मौजूद थी, यह सूचना भी देती गयी कि माननीय नेता जी की बहू के लिए भी इसी अस्पताल में ग्राउण्ड फ़्लोर पर एक कमरे का इन्तेज़ाम किया गया है। नेता जी के तीमारदारों के लिए अलग से तीन कमरों का इन्तेज़ाम फ़स्र्ट फ़्लोर पर किया गया है। मुझे देखने आने वाले मेरे शुभचिन्तक दोस्त-संबंधी और रिश्तेदारों ने अस्पताल के मुख्य द्वार से लेकर प्राइवेट वार्ड के प्रवेश द्वार पर तैनात पुलिस चैकसी से इस बात को पुष्ट किया कि कोई विशेष का प्रवेश होने वाला है। शायद यही वजह थी कि कर्मचारी बराबर कमरों के कोने-कोने की झाड़-फूंक में लगे रहे। जीजा के एक ही शिकायत पर प्लम्बर आ गए और झटपट बंद पड़ा टाएलेट का टैप रिपेयर कर गए। नेता जी की छवि भी सुधारनी है। स्वास्थ्य सुविधाओं को स्कैम से बाहर निकालना भी है। लेकिन कदम-कदम पर मरीज़ों के अन्दर खुश करने और चाय पिलाने की क्षमता भी होना ही चाहिए। हीमोग्लोबीन कम हो या ज्यादा हो, टीएलसी-डीएलसी की जांच चाहे जैसी हो, आॅपरेशन के दौरान अलग से ख़ून का जुगाड़ हो या न हो, लेकिन चाय पिलाने और खुश करने की क्षमता का होना किसी भी मरीज़ और उसके तीमारदारों के अन्दर होना चाहिए।

Thursday, December 29, 2016

अभी चलें... हमरा टाइम हो गया है...

जिनसे मिलने की आस में बीएचयू स्थित न्यू ट्रॉमा सेन्टर जाना हुआ, उनसे मुलाक़ात नहीं हो सकी। क्योंकि वो एक ज़रूरी मीटिंग में थे और मीटिंग के दौरान उनका सभागार से बाहर आना मुमकिन नहीं था। इंतेज़ार की घड़ियां गिनते वक्त मेरी मुलाक़ात मुश्ताक़ साहब से होती है। फ्लोर पर हम दोनों के अलावा एक अन्य व्यक्ति भी होते हैं, जो मुश्ताक के काम में सहायता कर रहे होते हैं। मुश्ताक़ साहब की व्यस्तता देखकर मीटिंग की गंभीरता और महत्व का अंदाज़ा लगाना मेरे लिए मुश्किल नहीं होता है। ऊपर से मुश्ताक साहब की बातें कि “साहब को मीटिंग के दौरान बाहर आना बिल्कुल पसंद नहीं है..... वो मीटिंग के दौरान किसी से मिलते नहीं.... वगैरह-वगैरह...”। लेकिन इस पल में कम से कम इतना हुआ कि मुझसे मुश्ताक़ साहब और मुश्ताक़ साहब से मेरा मिलना तय हो गया। मित्रवत सहयोग की भावना देख मैंने वापस जाने का इरादा छोड़ दिया और मुश्ताक साहब से कुछ पल बात करने की इच्छा ज़ाहिर की। 
मुश्ताक़ साहब बनारस के साकेत नगर कॉलोनी में रहते हैं। इस कॉलोनी में लगभग 50-60 परिवार ऐसे हैं जिनकी सामुदायिक पहचान हलालखोर बिरादरी की है। इनके अब्बा का नाम इसहाक़ है और वो 55 वर्ष के हैं। वो बीएचयू में सफाईकर्मी के पद पर तैनात हैं। कुल छः भाई-बहनों में मुश्ताक़ साहब एक हैं। उनकी शैक्षिक अर्ह्ता 10वीं पास की है। लेकिन अच्छी बात यह है कि बेकारी के इस दौर में उनके पास एक अदद सरकारी नौकरी है। वैसे तो मुश्ताक़ साहब की नियुक्ति सफाईकर्मी के पद पर है। लेकिन कहते हैं कि “वो हर काम करते हैं।” एक सुखद एहसास यह है कि उन्हें बीएचयू के नए ट्रामा सेन्टर स्थित कुलसचिव और उप कुलसचिव की सेवा में रहना होता है। सेवा में कभी कोई भूल हो जाए तो गांव-मुहल्ले या खेत-खलिहानों में काम करने वालों की तरह उन्हें झिड़कियां नहीं सुननी होती हैं। एक ग़लती तो उनसे अभी हो गयी थी। उन्होंने मीटिंग रूम में चाय की जगह कॉफी परोस दी थी। मीटिंग में भाग ले रहे डॉक्टर और प्रशासनिक पदाधिकारियों की प्रतिक्रिया सिर्फ चाय और कॉफी के स्वाद में अंतर बताने भर की होती है। चेहरे पर संतुष्टि का भाव लिए मुश्ताक़ भाई को अगले काम की जल्दी होती है। उनके जाने की जल्दबाज़ी के बावजूद उनसे कुछ पल बात करने का अवसर न खोने के इरादे से एक बार फिर बैठने का इसरार कुबूल फरमाते हैं।
हम दोनों मीटिंग हॉल के सामने बाहर रखी कुर्सी पर बैठ जाते हैं। नाम, गांव पता के बाद वो कहते हैं, “अभी चलें... हमरा टाइम हो गया है...”। “कहां चलें?”, का जवाब देते हुए बताया कि “हम चलेंगे सर का लंच लेने।” ज़ाहिर है, चाय-काफी के बाद सर को लंच कराने की जिम्मेदारी मुश्ताक साहब की होती है।
वो चलते, इससे पहले ही एक लड़की, उम्र 20-25 बरस की रही होगी, लिफ्ट से बाहर निकलती है। वो मीटिंग हॉल की ओर बढ़ती है। लेकिन मुश्ताक़ साहब उसे बैठे-बैठे ही रोकते हैं। “किससे मिलना है?, क्या काम है?...” वगैरह पूछते हैं। “फार्मा से आ रही हूं।... सर ने बुलाया है।...” मुश्ताक़ साहब एक बार फिर मीटिंग रूम में जाते हैं और वापस आकर उस लड़की को अन्ंदर जाने का इशारा करते हैं। मुश्ताक़ साहब को मैं फिर से कुर्सी पर बैठने का आग्रह करता हूं और इस बार भी वो आग्रह स्वीकार भी कर लेते हैं।
इस बार बहुतों की तरह उनमें जल्दी जाने की बेचैनी बार-बार ज़ाहिर नहीं करते। 10वीं पास मुश्ताक़ साहब की कद़-काठी किसी ऐसे नौजवान की है, जिसे पुलिस और आर्मी की सेवा हेतु योग्य न समझा जा सके। उनका चेहरा और हेयर स्टाइल ऐसा कि बड़े और छोटे दोनों ही पर्दों के कलाकार होने की दलील हो। लेकिन मुश्ताक़ साहब की क़िस्मत या मसलेहत कि उन्हें उनके अब्बा की तरह सफाईकर्मी के पद पर ही नियुक्ति मिली। मुश्ताक साहब के समझ से यह बात परे है कि जब उनके घर-परिवार के साथ साकेत नगर कॉलोनी में किसी तरह का भेदभाव नहीं है, तो ऐसा क्यों है कि पुश्त दर पुश्त उनकी बिरादरी के लोग ही सफाई के काम में क्यों लगे हुए है? या उन्हें ही इस काम के लिए उपयुक्त क्यों समझा जाता है?, शैक्षिक और शारीरिक रूप से पुलिस और सेना की सेवाओं के लिए अर्ह् और योग्य भी दिखने वाले मुश्ताक़ साहब को नहीं पता कि उन जैसे नौजवानों को सफाईकर्मी के लिए ही योग्य समझा जाता है? और “काशी का अस्सी” लिखने वाले काशी नाथ सिंह जैसे लेखकों और साहित्यकारों को भी मुश्ताक़ जैसे नौजवानों का विमर्श नहीं दिखता है।
चूंकि शिक्षा मानव विकास के तीन प्रमुख सूचकांकों में एक है। 10वीं पास मुश्ताक भाई से यह जानना एक नए अनुभव का सबब बना कि उनकी बिरादरी में सबसे अधिक शैक्षिक अर्ह्ता रखने वाला कौन है। मुश्ताक़ भाई को शिक्षा का यह सवाल जातिवादी सवाल लगा। कहते हैं कि “ये जो जातिवादी सवाल है, इसके बारे में बड़े अब्बू से पूछिए, उनको बहुत जानकारी है।”
मुश्ताक साहब आप नहीं जानते कि जो जानकारी आपके बड़े पापा को है, दर असल वो जातिवादी नहीं है और न ही जातिवाद को बढ़ाने के लिए है। यह तो किसी व्यक्ति, समाज और समुदाय की अपनी खु़द की अस्मिता और आस्तित्व को बचाए और बनाए की जानकारी है। अफ़सोस का मुकाम यह है कि आप जैसे नौजवान जो अपनी सामुदायिक पहचान के कारण सदियों से वंचित रहे, आज उसी पहचान को जातिवादी समझ रहे हैं। जातिवाद की यह समझ कहीं न कहीं, किसी न किसी समय में आपकी समझदारी का हिस्सा बनी है।
शायद मुश्ताक़ साहब अब बोर हो रहे थे। उनके बैठने का अंदाज और कुर्सी पर हील-डोल करता उनका शरीर जल्दबाज़ी की चुग़ली कर रहा होता है। लेकिन मिस्लम समाज के आन्तरिक लोकतंत्र की बातें उन्हें कुछ और पल आराम से बैठ जाने के लिए आमादा करती हैं। सर और सर का लंच बातचीत में बाधा नहीं बनती। अपना ख़याल ज़ाहिर करते हुए कहते हैं कि “इस तरह से न तो पहले किसी ने उनसे बात की थी और न ही संविधान, आज़ादी, न्याय और समानता के बार में कुछ बताया था।” यहां एक से एक लोग आते-जाते रहते हैं। इनमें ज्यादातर डॉक्टर और ट्रॉमा सेन्टर के स्टॉफ होते हैं। लेकिन कभी किसी ने शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका को लेकर कोई बात साझा करना ज़रूरी नहीं समझा।” कुछ पलों की बातचीत के दौरान मुश्ताक़ साहब ने बार-बार अपने बड़े अब्बू मुर्तजा अली का ज़िक्र किया कि मैं उनसे बात करूं। वो मुझे सही-सही बताएंगे। वो लड़की जो कुछ देर पहले मीटिंग रूम में गयी थी, वापस आ चुकी होती है। मोबाइल के की पैड पर उंगलियां फिराती सीढ़ी बढ़ती है। मुश्ताक़ साहब और मैं भी लिफ्ट से नीचे पहुंचते हैं। बाहर निकलकर मुश्ताक़ साहब से मैं और मुझसे मुश्ताक़ साहब विदा लेते हैं। ये कहना नहीं भूलते कि मेरे बड़े अब्बू से बात कीजिएगा, वो सही-सही बताएंगे।

September 2015, BHU, Varanasi

Tuesday, January 14, 2014

एक घिसटता हुआ व्यक्ति...


“ऐ दे रे...... चल जल्दी कर.... निकाल-निकाल.... ए चिकने... सुना नहीं क्या... दे दे...” की आवाजे़ चलती हुई रेलगाड़ी की आवाज़ पर भारी पड़ रही थी। ट्रेन में बैठे मुसाफिरों को खास कर जिन्हें अपने ‘मरदानापन’ पर नाज होता है, पल भर में उन विशिष्ट लक्षणों का प्रदर्शन करते देखा जा सकता था, जिन्हें आम तौर पर औरतों की पहचान से जोड़कर व्याख्यायित किया जाता है। बहरहाल, हिजड़ों की जमात यात्रियों का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थी। कुछ ने दिया और कुछ ने बहाना बनाकर खुद को बचाया। लेकिन एक बात समान थी कि सभी यात्री हिजड़ों के डर से सहमे हुए थे। रेलगाड़ी रफ्ता-रफ्ता आगे बढ़ रही थी, मानकनगर स्टेशन पीछे छूट रहा था। हिजड़े भी अगले कम्पार्टमेन्ट की तरफ बढ़ चुके थे। उनके आगे बढ़ते ही डर का दबाव कम हुआ। हल्की और तेज मुस्कराहटों के साथ यात्री एक बार फिर एक दूसरे से मुखातिब हुए। कोई पांच मिनट हुए होंगे, एक व्यक्ति घिसटता हुआ हमारी तरफ आया। आते ही उसने दुआवों का पिटारा खोल दिया। “ऊपर वाला भला करे... खुशी बनी रहे... बाल-बच्चे मजे में रहें....” वगैरह बोलता हुआ उसने अपना एक हाथ मुसाफिरों के आगे फैला दिया। हाथ फैलाए उस व्यक्ति ने अपना मुंह ऊपर किया और कुछ इस तरह दुआवों भरी आवाज़ बुलन्द की, जिससे उसकी पुकार कम्पार्टमेन्ट में बैठे हर मुसाफिर के कान तक पहुंच जाए और मुसाफिर की नज़र उसकी हालत पर। वह व्यक्ति लगातार इस कवायद को जारी रखे हुए था, इस उम्मीद में कि ज्यादा से ज्यादा मुसाफिर उसे आर्थिक सहयोग दे दें।

क बार फिर यात्रियों की दानशीलता की परीक्षा थी। हो भी क्यों नहीं, कुछ देर पहले हिजड़ों की फौज सामने थी, जिन्होंने रज़ामंदी और जबरदस्ती दोनों ही तरीकों से मुसाफिरों से पैसे लिए। इस बार घिसटता हुआ एक अकेला व्यक्ति जिसे एक-दो के सिक्कों से अधिक की चाह भी नहीं थी। हैरान करने वाली बात यह थी कि जिन यात्रियों से हिजड़ों ने दस रूपए से कम नहीं लिए थे, उन्हीं यात्रियों की जेब से एक-दो रूपए निकल पाना मुश्किल हो रहा था। रेलगाड़ी रफ़्तार पकड़ चुकी थी। ट्रेन अमौसी स्टेशन से आगे निकल रही थी। घिसटता हुआ व्यक्ति एक बार यात्रियों की ओर देखता और एक बार अपने आप पर। जैसे बताना की चाह हो कि मुसाफिरों मेरी शारीरिक स्थिति वाकई खराब है। लेकिन एक-दो को छोड़कर सभी मुसाफिर उस घिसटते हुए व्यक्ति की आवाज़ और शारीरिक भाव-भंगिमा बल्कि उसके वजूद और मौजूदगी से खु़द को बेगाना जताने की कोशिश कर रहे थे। मायूसी के आलम में घिसटते हुए उस व्यक्ति ने एक बार फिर पूरी ऊर्जा लगाकर अपनी लाचारी बयान की, “ऐसे लाचार को नहीं दीजिएगा तो किसे दीजिएगा?.... दोनों पैर बेकार हैं.... ऐसे लाचार को देने से दोआ लगता है।” इतने के बाद भी कम्पार्टमेन्ट में यथा स्थिति बनी रहती है। सिर्फ रेल के पहियों की आवाज़ ही शेष थी। उस घिसटते हुए व्यक्ति को इतनी बात समझ में आ चुकी थी कि आगे बढ़ने में ही भलाई है।

स घिसटते हुए व्यक्ति के आगे बढ़ते ही सामने बैठे दुर्गेश ने जीतेन्द्र से कहा कि “तुमने दिया नहीं, अगर श्राप दे देगा तो!” जीतेन्द्र के जवाब से हमारे जैसों का ध्यान भी उसकी ओर केन्द्रित हो गया। “दे देगा तो दे दे..., इससे बड़ा श्राप क्या होगा कि 22 साल की उम्र में हमारे गांव-कस्बे के नौजवानों को घर-बार छोड़कर त्रिवेन्द्रम जाना पड़ रहा है।” जीतेन्द्र ने हमें बताया कि “रेल में यात्रा बस से सस्ता और सुविधाजनक तो है, लेकिन बार-बार हिजड़ों का सामना यात्रा को कठिन बनाता है। गोरखपुर से लखनऊ के बीच अभी तक चार-पांच बार ये आ चुके हैं। आय चाहे जितनी हो, बचत हो या न हो, हिजड़े हम जैसों से ही वसूली करते हैं। हम इन्हें पैसे तो दे ही देते हैं, लेकिन ये हमसे जबरी (बलपूर्वक) वसूली करते हैं। पूरे सफर में 200 से 500 रूपए इन जैसों को देना पड़ता है। ऊपर से इनकी बद्तमीज़ियां अलग झेलनी पड़ती हैं। ऐसा भी होता है कि किसी कारणवश किसी यात्री ने पैसे नहीं दिए तो ये उस यात्री के साथ मार-पीट करने को तैयार हो जाते हैं। पिछली बार की ही घटना है, हमारे एक साथी के पास पैसे नहीं थे, इसलिए उस पर एक हिजड़े ने हाथ उठा लिया था।” कुछ मुसाफिर, जिनका साबका कभी-कभी होता है, ने बताया कि यह तो जबरन उगाही है। भुक्तभागी यात्रियों ने ही बताया कि ऐसा कहने पर उलटा जवाब मिलता है “जिस थाने में जाना हो चले जाओ..., वो तो खुद हमारी खाते हैं...”।

ब तक मुझे बैठने के लिए थोड़ी जगह मिल चुकी थी। लेकिन सामने बैठे 29 साल के जीतेन्द्र का चेहरा बार-बार उदास सा हो रहा था। जीतेन्द्र अकेले नहीं थे जो त्रिवेन्द्रम जा रहे थे। उनके गांव के जवान लड़कों की एक पूरी टोली थी, जो आजीविका के लिए त्रिवेन्द्रम जा रही थी। इस यात्रा में दुःख, विषाद, वियोग और हर्ष हर तरह के भाव थे। हर्ष काम करके आजीविका अर्जित करने का, दुःख और विषाद अपनों से बिछड़ने का।

लखनऊ
10.01.2014

Tuesday, January 7, 2014

“आपने उन्हें सलाम किया!”


की तरह आज भी कुहरा बहुत घना था। 10 मीटर की दूरी तक देख पाना मुश्किल हो रहा था। हैड लाइट और इंडिकेटर की रोशनी भी कम पड़ रही थी। आज का पहला काम कुछ अहम जानकारी इकट्ठी करना था। मिश्रा जी के केबिन से निकला तो मेरी नज़र बाहर लाॅन में काम कर रहे कुछ मज़दूरों पर पड़ी, जिन्हें मौसम की बानगी से कुछ लेना-देना नहीं था। वो अपनी धुन में अपने काम में व्यस्त थे। मुझे कौतुहल से देखते और फिर अपने काम में लग जाते। मैं अपनी इच्छित जानकारी की खोज में कभी निर्माणाधीन भवन के अन्दर जाता तो कभी बाहर आता। सीढि़यां चढ़ता और उतर जाता। शायद मेरी नज़रों को किसी मददगार की तलाश थी। प्रथम तल पर पहुंचा तो वहां सलवार-समीज में दो महिलाओं को हाॅल के अन्दर पोछा लगाते हुए देखा। मैं उनसे मुखातिब होता, इससे पहले ही एक महिला काॅरीडोर से होते हुए हमारी तरफ आयीं। वह महिला मुझसे मेरे बारे में बगैर किसी जांच-पड़ताल के मेरी ‘जानकारी की खोज’ में मेरी मददगार बन गयी।

हाॅल में दाखिल हुए तो उस महिला ने अंधेरे में अपनी ओर आते हुए एक व्यक्ति को “सलाम वालेकुम” बोला। ये तो मैं समझ गया था कि ये दोनों एक दूसरे के परिचित हैं। लेकिन पहचान के सवालों में उलझा मेरा मन खु़द को रोक नहीं सका। सवाल कुछ इस तरह से किया कि दोनों की पहचान ज़ाहिर हो जाए। मेरी जिज्ञासा जायज़ थी या नहीं, लेकिन मेरे हिसाब से इस सवाल की गुंजाइश ज़रूर बन गयी थी। क्योंकि मदद करने वाली महिला जो अभी तक “सब साईं बाबा की कृपा है....” का उच्चारण कर रही थी, उसके मुख से “सलाम वालेकुम” की धारा प्रवाह अभिव्यक्ति ने मेरे मन को अचानक से यू टर्न लेने पर मजबूर कर दिया। अब मकसद उन जानकारियों को इकट्ठा करना नहीं था, जिनके लिए मैं कुहरा और सर्दी की परवा किए बगैर अल सुबह घर से निकला था, बल्कि सुबह-सुबह दो ऐसे व्यक्तियों की पहचान से वाकि़फ होना था।

निस्संदेह इंसानियत से बड़ी कोई पहचान नहीं हो सकती है। लेकिन भारत जैसे विविधता बाहुल्य देश और सामाजिक ताना-बाना में कई बार हम धार्मिक/सामुदायिक पहचान के विमर्श में खु़द-ब-खु़द खिंचे चले जाते हैं। मेरी जुस्तजू इतनी थी कि जिस जगह मैं खड़ा था वहां “सलाम वालेकुम” के लिए इतनी गुंजाइश कैसे बन पायी। मैंने मदद करने वाली महिला से विस्मयवाचक अंदाज़ में पूछा कि “आपने उन्हें सलाम किया!” महिला जवाब देती, इससे पहले सामने से आ रहे व्यक्ति की आवाज़ हम तक चली आयी। “क्या मुसलमान होना गुनाह है?” चश्मा लगाए वह व्यक्ति, जो नीली जैकेट में था, देश और दुनिया के बुद्धिजीवियों और चिंतकों के ढे़रों तार्किक और अतार्किक सवालों का जबाब बन गया। ऐसा लग रहा था, जैसे वह व्यक्ति यह नहीं कह रहा हो कि “क्या मुसलमान होना गुनाह है?”, बल्कि यह कह रहा हो कि “हां! जिस तरह से दलित, पिछड़ा, आदिवासी, महिला और ग़रीब होना गुनाह है, उसी तरह मु.......................।”

अपने साथ एक फोटो की गुज़ारिश सुमन और अनवर ने बिना किसी लाग-लपेट के फौरन पूरी कर दी। दोबारा जाने कब मुलाकात हो इनसे, फिर भी ऐसा लगता है कि सुमन और अनवर जैसे बहन-भाइयों की कमी नहीं है हमारे समाज में।

दिनांक 07.01.2014
स्थान- लखनऊ

आर्थिक सुधारों के दौर में मेहनतकश कौमों का सुधार क्यों नहीं ?

बाराबंकी से वापस तो हम कल ही आ गए थे, लेकिन इरशाद मियां ने पीछा नहीं छोड़ा. दिन भर काम करते हैं तो कोई 8-10 जालियां तैयार कर पाते हैं, जिसका इस्तेमाल छप्पर और दीवार नुमा दीवार बनाने में किया जाता है. यानि ग़रीब को ग़रीब की मेहनत का सहारा. इस काम में इरशाद मियां को बांस चीर कर बत्ता या फट्टा बनाना पड़ता है. इस बत्ता के बनाने में हाथ कटने की संभावना प्रबल होती है. आम तौर पर इस काम को करने वाले समुदाय को बांसफोर कहा जाता है, इस समुदाय के लोग बांस के बत्ते या फट्ठे और मूँज के इस्तेमाल से तरह-तरह की डिजाइनों वाले पात्रों और रोज़मर्रा इस्तेमाल की चीजें बनाने की अदभुत कला जानते हैं. पिछले दिनों मुहम्मदाबाद-मऊ संपर्क मार्ग पर हर एक दो किलोमीटर के अन्तराल पर बांसफोर समुदाय की झोपड़ियाँ देखने को मिलीं. कुछ धार्मिक अवसरों पर सूप जैसी वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है. वैसे इनके बनाये हुए उत्पाद ट्रकों में एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हुए भी देखा जा सकता है. ऐसे में यह सवाल जायज़ है कि इतनी मेहनत और बाज़ार से लिंक्ड होती हुई आर्थिक सुधारों के दौर वाली मौजूदा अर्थव्यवस्था में इन जैसे मेहनतकश कौमों का सुधार क्यों नहीं हो पा रहा है?